रविवार, 1 सितंबर 2013

अब जी में आता है उसे माँ कह दूँ ।

अपने ख्वाबों के मलबों के उपर 
वो वहाँ रोज बैठी रहती है 

वो निढाल पड़े - पड़े अजनबियों को 
बेटा - बेटी बनाके कहती थी 
अब न फेंको भीख के रहमत मुझपर
मुझे निकालो बहार इस सड़े मलबे से
अब इसकी बू से मेरा दम घुटा सा जाता है

कई दिनों से वो चुप- चाप बैठी रहती है
ऐसा लगता है कि वो तोड़ चुकी है रिश्ते
अब तो बेटा भी नहीं कहती है

उसकी चुप्पी अब मेरे दिल को झकझोर देती है
मेरे आँखों को आंसुओ से बोर देती है
जी में आता है कि भींच लू बाँहों में उसे
चूम लू उसके लकीरों से भरे माथे को
जी में आता है उसे माँ कह दूँ
अब जी में आता है उसे माँ कह दूँ ।

कोई टिप्पणी नहीं: