गुरुवार, 28 अप्रैल 2016

इतिहास- निर्माण में व्यक्ति के महत्व पर डॉ. आंबेडकर के विचार


यदि महापुरुष इतिहास के निर्माता न हो, तो इसका कोई कारन नहीं कि हम उनकी ओर सिनेमा स्टारों से अधिक ध्यान दें. इस सम्बन्ध में विचारधाराएँ भिन्न- भिन्न है. कुछ लोग इस बात पर बल देते हैं कि कोई व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो, वह परिस्थिति की उत्पत्ति होता है- परिस्थिति ही उसे आगे लाती है. परिस्थिति ही सब कुछ करती है वह कुछ नहीं करता. मेरा मत यह है कि ऐसा विचार रखने वाले इतिहास की गलत व्याख्या करते हैं. ऐतिहासिक परिवर्तनों के कारन के सम्बन्ध में तीन भिन्न- भिन्न मत है .


-एक ऑगस्टीनी सिद्धांत है; उसके अनुसार इतिहास दैवी योजना का प्रकटीकरण मात्र है, जिसके अधीन मानव जाति को निरंतर युद्ध और कष्टों का तब तक सामना करना पड़ता है, जब तक प्रलय- दिवस ( डे ऑफ जजमेंट ) नहीं आ जाता.

-बकलस ने यह कहा कि इतिहास का निर्माण भूगोल और पदार्थ विज्ञान ने किया है.

-और कार्ल मार्क्स ने तीसरे सिद्धांत का प्रतिपादन किया. उसके अनुसार आर्थिक सम्बन्धों के कारण इतिहास की रचना हुई.

यह तीनो सिद्धांत यह स्वीकार नहीं करते कि इतिहास महापुरुषों की जीवनी मात्र है. वास्तविकता तो यह है कि ये तीनों सिद्दांत इतिहास- निर्माण में व्यक्ति का कोई स्थान प्रदान नहीं करते.
धार्मिक विचार वालों के अतिरिक्त कोए भी ऑगस्टीनी- इतिहास सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता.

यधपि बकलस और मार्क्स के कथन का सम्बन्ध है, वे जो कुछ कहते हैं, यधपि यह सत्य है, किन्तु वह पूर्ण- सत्य नहीं है. उनकी यह प्रस्थापना बिलकुल गलत है कि निवैयक्तिक तत्व ही प्रमुख होते हैं और इतिहास निर्माण में व्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं होता. इससे इंकार नहीं किया जा सकता की निवैयक्तिक तत्व निर्णायक होते हैं, लेकिन यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि निवैयक्तिक तत्वों का प्रभावकारी होना व्यक्ति पर निर्भर करता है. चकमक पत्थर प्रत्येक स्थान पर भले ही उपलब्ध न हो, लेकिन जहाँ वह उपलब्ध होता है उससे अग्नि तभी उत्पन्न होती है जब मनुष्य चकमक से चकमक से रगड़े.

प्रत्येक जाति, पार्टी या संस्था के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है, उसकी रुधिरवाहिनी नलिकाएँ कठोर हो जाती हैं. उसके नौजवान कल्पना शून्य हो जाते हैं, उसके वृद्ध किसी प्रकार के स्वप्न्जगत में विचरण नहीं कर पाते; तब यह ( जाति, पार्टी या संस्था ) पुरानी स्मृतियों पर जिन्दा रहती है और नैराश्य- भावना से इन स्मृतियों को फिर से स्थायी बनाने का प्रयास करती हैं.

राजनीती में जब ऐसी प्रक्रिया जड़ता की स्थिति प्राप्त कर लेती है तब हम इसे बोरबोनिज्मकी संज्ञा प्रदान करते हैं और बोरबोनका स्पष्ट लक्षण यह होता है कि इस बात के प्रति अचेतन रहने के कारण यह स्केलेशेसिस रोग से ग्रस्त है.
वह रोग से मुक्ति पाने की कोई आवश्यकता नहीं समझता. परिवर्तित और नई परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठने में असमर्थ होने के कारण वह गुजरे ज़माने का वैसे ही सहारा लेता है, जैसे कोई वृद्ध व्यक्ति सहारे के लिए अपनी जीर्ण-शीर्ण आरामकुर्सी पर लुढुक जाता है.

दुसरे प्रकार की परिस्थिति क्षयग्रस्त होने की नहीं, वरन विनाश की है. संकट के प्रत्येक अवसर पर इसकी संभावना विद्यमान रहती है. पुराने ढंग, पुरानी आदतें और पुराने विचार समाज के उत्थान और उसके पथ- प्रदर्शन में असफल रहते हैं. यदि नए प्रकार के उपाय खोजे जाएँ तो जीवित बचने की कोई सम्भावना शेष नहीं रहती. किसी भी समाज की जीवन यात्रा सरल नहीं होती. प्रत्येक समाज को पतन और विनाश की संभावनाओं की कालावधि से गुजरना होता है. कुछ समाज जीवित रहते हैं, कुछ विनिष्ट हो जाते हैं और कुछ में स्थायित्व या ठहराव आ जाता है और कुछ पतन के गर्त में चले जाते हैं. ऐसे क्यूँ होता है ? ऐसा क्या कारण है की कुछ जीवित बच जाते हैं ?
इसका कार्लइल ने एक उतर प्रस्तुत किया है. यह सम्बन्ध में उसने अपने अनोखे तर्क में लिखा है
यदि महान, बुद्धिमान और योग्य व्यक्ति उपलब्ध हों तो किसी कालाविधि को पतन का मुँह न देखना पड़े; कालावधि की अपेक्षा समझने की क्षमता हो और लक्ष्य तक ले जा सकने हेतु पथ- प्रदर्शन का सहस हो, तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है.

मेरे विचार में यह उनके लिए निर्णायक उतर है, जो इतिहास निर्माण में व्यक्ति को कोई स्थान नहीं देना चाहते. नए साधन अपनाकर ही संकट का सामना किया जा सकता है. जहाँ नए साधनों को खोजा नहीं जा सकता, वहाँ समाज अध्: पतन का शिकार हो जाता है. समाज को सही मार्ग पर ले जाना, समय का उतरदायित्व नहीं है; यह कर्तव्य व्यक्ति का है. अतः व्यक्ति इतिहास निर्माण का प्रमुख घटक होता है तथा परिस्थितिक शक्तियाँ, चाहे वे निवैयक्तिक हों या सामाजिक, महत्वपूर्ण होते हुए भी निर्णायक नहीं होतीं.

रानाडे के 101वें जन्मदिवस के अवसर पर आयोजित पुणे की दक्षिण सभा ( डकन सभा ) में दिया गया भाषण का संक्षिप्त अंश

बुधवार, 16 जुलाई 2014

जब मै लिंगराज दादा से मिलाने बरगढ़ गया उस समय मुझे समता भवन में जाने का अवसर मिला. यह भवन राजनितिक इतिहास चक्र में एक पावन पड़ाव रहा है. एक समय समाजवादी जन परिषद् के संसथापक अध्यक्ष किशन पटनायक जी यहीं रहते थे. मैंने कुछ हीं दिनों पहले किशन जी का नाम सुना था. योगेन्द्र यादव लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान ओडिशा आये थे. तब उन्होंने अपने भाषण में किशन जी का जिक्र करते हुए यह कहा की ओडिशा से मेरा पुराना नाता है मेरे राजनैतिक गुरु किशन पटनायक यहीं के रहने वाले थे और राजनीति में प्रवेश करने का मार्ग किशन जी के सानिध्य से ही मिला”. बरगढ़ आ कर मुझे पता चला की लिंगराज दादा ने भी किशन जी के सानिध्य में आ कर राजनीति में प्रवेश किया था. इन दो अदभुत व्यक्तित्व से मिलने के बाद किशन जी के बारे में जानने की तीव्र इक्षा हुई. योगेन्द्र जी के घर के एक दीवाल पर टंगी एक लिथोग्राफ को देखा तो मुझे लगा कि यह दिनकर की चित्र होगी पर मधुलिका दीदी ने बताया की यह किशन जी है. मधु दीदी से अक्सर बात करने के क्रम में किशन जी आ जाते हैं. मधु दीदी किशन जी की कई बात मुझे बताती रहती हैं. मेरे राजनितिक राजनितिक तटस्थता और अज्ञानता के कारण मै किशन जी के बारे में कुछ नहीं जनता. किशन जी 2004 तक जीवित थे. अगर मै इन्हें पहले जान पाता तो शयद मिल पता. इस बात का अपराध बोध जीवन भर रहेगा. उनके लेख पढ़ कर मन में उनकी एक छबि बना रहा हूँ. राजकमल प्रकाशन द्वारा किशन जी की लिखी दो किताबें प्रकाशित हुई है. एक विकल्पहीन नहीं है दुनियादूसरी भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि”. दोनों किताबों को पढ़ रहा हूँ. मेरे मन में एक बात आई रही है क्यों न इस किताब की कुछ लेखों को दोस्तों से साझा किया जाये ताकि वो भी किशन जी से परिचित हों. किशन जी का यह लेख मुझे आज भी प्रासंगिक जान पड़ती है. 

सभ्यता का संकट और भारतीय बुद्धिजीवी - किशन पटनायक

जैसे जैसे देश की समस्याएँ गहरा रही हैं और समाधान समझ से बाहर हो रहा है, वैसे वैसे कुछ सोचनेवालों की नजर राजनीति और प्रशासन के परे जाकर समस्याओं की जड़ ढूँढने की कोशिश कर रही है. वैसे तो औसत राजनेता, औसत पत्रकार, औसत पढ़ा- लिखा आदमी अब भी बातचीत और वाद- विवाद में सारा दोष राजनैतिक नेताओं, चुनावप्रणाली या प्रशासन के भ्रष्टाचार में हीं देखता है. लेकिन क्या वाही आदमी कभी आत्मविश्लेषण के क्षणों में यह सोच पाता है कि वह भी उस भ्रष्टाचार में किस तरह जकड़ा हुआ है. वह यह सोच नहीं पाता कि  किस तरह वह भी खुद भ्रष्टाचार को रोक सकता है.
       कुछ लोग अपने को प्रगतिशील मानते हैं. वे कहीं-न
 कहीं समाजवादी या साम्यवादी राजनीति से जुड़े हुए हैं. कुछ साल पहले तक ऐसे लोग जोश में और जोर के साथ बता सकते थे की आर्थिक व्यवस्था के परिवर्तन से सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा. पिछले वर्षों में उनका यह आत्मविश्वास क्षीण हुआ है. समाजवादी और साम्यवादी कई गुटों में विभक्त हो चुके हैं. उनके राजनीति के जरिए तीसरी दुनिया का आम आदमी एक नए भविष्य की कल्पना नहीं कर पा रहा है. बढाती हुई सामाजिक हिंसा, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार, आदमी की अनास्था जैसी समस्याएँ को समझने समाजाने में समाजवादी या साम्यवादियों के पुराने सूत्र और मंत्र विश्वसनीय नहीं रह गए हैं.
ऐसी स्थिति में कुछ संवेदनशील दिमागों को यह लगने लगा है कि समस्याओं कि जड़ में राजनीतिक अनैतिकता नहीं
, नैतिक गलतियाँ नहीं, बल्कि सभ्यता और समाज का संकट है. चर्चाओं में यह बात बार बार आने लगी है. प्रसिद्ध विचारक डॉ. जयदेव सेठी ने भी ऐसी हीं  बात कही है. पिछले दिनों में उन्होंने गाँधी का अध्ययन किया है और वर्तमान में गाँधी के प्रासंगिकता को सिद्ध किया है. कारण, गाँधी ने समस्याओं की चुनौती को सभ्यता के स्तर पर लिया है. गाँधी ने सभ्यता के स्तर पर एक टकराव की रणनीति भी बनाई थी .
 
प्रशासन और सत्ता
राजनीति से परे, अर्थव्यवस्था और उत्पादन- व्यवस्था के परे जा कर सभ्यता के परिवर्तन द्वारा समस्याओं को ढूँढना ही गहराई में जाना और दीर्घकालीन सोच और रणनीति बनाना है. सोचने के इस ढंग को गंभीरता से लेने के पहले कुछ सावधानी बरतनी पड़ेगी.  क्योंकि भारतीय संसकृति और समाज में रहनेवाला जब गहराई में जाता है, तब वह इतना डूब जाता है कि उसको ऊपर की दुनिया नहीं दिखाई देती. उसके लिए राजनीति, व्यवस्था, संघर्ष, आन्दोलन सब कुछ अप्रासंगिक हो जातें हैं. वह इस सभ्यता के जंजाल से हट जाता है. महर्षि अरविन्द, संत विनोवा, अच्युत पटवर्धन, पंडित रामनन्दन मिश्र  जैसे लोग संघर्ष की राजनीति से समस्याओं से दूर चले गए क्योंकि समस्याओं का जड़ बहुत गहराई में जा कर दिखने लगी भारतीय संस्कृति में यह एक जबरदस्त अवगुण है कि आदमी की गहराई में जनि की प्रक्रिया में वह समाज से हीं अलग कर देती है. गाँधी जी के साथ ऐसा नहीं हुआ. सभ्यता से टकराने के लिए गाँधी जी ने सारी तात्कालिक समस्याओं को राजनितिक और सामाजिक स्तर पर लड़ना पड़ा. लेकिन गाँधीजी की पचास फिसिदी बातें ऐसी है जो एक भारतीय को जड़ और उदासीन बना देती है. खुद गाँधी जी व्यवहार में आधुनिक और भारतीय दोनों सभ्यताओं से लड़ रहे थे. लेकिन प्रतिपादन में, लेखन तथा प्रचार में उनका एक हीं निशाना रहा- आधुनिक पश्चिमी सभ्यता. भारतीय सभ्यता और हिन्दू व्यवस्था से उन्हें हर कदम पर टकराना पड़ा. मृत्यु भी उसी टकराहट से हुई. लेकिन हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ बताना उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. यह या तो एक प्रकार का छद्म था, या फिर संतुलित विचार की कमी. इसी कारण से एक संतुलित गाँधी विचार नहीं बन सका है. 
 
      गाँधी का विचार संतुलित था, किन्तु उनमे वैचारिक संतुलन नहीं था. दुसरे लोग जब आधुनिक सभ्यता से टकराते हैं, अक्सर दोनों स्तर पर संतुलन खोते हैं. प्राचीन सभ्यता के कुछ प्रतीकों को ढूँढकर वे एक गुफा बना लेते हैं. और उसमे समाहित हो जाते हैं. उनके लिए समस्या नहीं रह जाती, संघर्ष की जरुरत नहीं रह जाती है. अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी यह नहीं जानते की हमारी सभ्यता का संकटक्या है. उनका एक वर्ग आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की नाकर कर या उससे घबरा कर प्राचीन सभ्यता के गर्भ में चले जाता है. योग , गोसेवा , या कुटीर उद्योग उनके लिए कोई नवनिर्माण की दिशा नहीं है बल्कि एक सुरंग है जिसमे पहुंचकर शांति की नींद लेने लगते हैं. बुद्धिजीवियों का दूसरा वर्ग पश्चिमी सभ्यता से आक्रांत रहता है, या घोषित तौर पर उसको अपनाता है. उसको अपनाने के क्रम में पश्चिमी सभ्यता का उपनिवेश बनाने के लिए वह अपनी स्वीकृति दे देता है. लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है. हम सब कामोबेश आधुनिक सभ्यता से आक्रांत हैं. उसको आंशिक रूप से या पूर्णरूप से स्वीकारने की कोशिश करते हैं. लेकिन हमारी रगों में प्राचीन भारतीय सभ्यता का भुत भी बैठा हुआ है. उसके सामने हम बच्चों जैसे भीत या शिथिल हो जाते हैं. वह हमें व्यक्ति या समूह के तौर पर निष्क्रिय तटस्थ और अप्रयत्नशील बना देता है. जो लोग पश्चिमी सभ्यता को बेहिचक ढंग से अपनाते हैं. वे भी साईं बाबा के चरण-स्पर्श 
से हीं सार्थकता महसूस करते हैं. सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायधीश वी. आर. कृष्ण अय्यर मार्क्सवादी रहे महेश योगी के भक्त भी हैं. नाम लेना अपवाद का उल्लेख करना नहीं है. यह अपवाद नहीं
, नियम है. यह विविधता का समन्वय नहीं है, यह केवल वैचारिक दोगलापन है. दोगली मानसिकता की यह प्रवृति होती है कि वह किसी पद्धति की नहीं होती है. वह केवल बने- बनाए पिंडो को जोड़ सकती है, उनमे किसी को बदल नहीं सकती है. आत्मसमीक्षा करेगी, तो बने बनाए पिंडों को संघर्ष करना पड़ेगा. इसी लिए बहार की तारीफ से गदगद हो जाती है और आलोचना को अनसुना कर देती है. इसकी चौथी विशेषता यह है कि वह मौलिकता से डरती है. एक दोगले व्यक्ति का उदहारण होगा – ‘श्री आरक्षण-विरोधी जनेऊधारी कंप्यूटर विशेषज्ञ’! इस तरह के व्यक्तित्व को हम क्या कहेंगे – ‘विविधता का समन्वय?’
तो भारतीय बुद्धिजीवियों को जब पश्चिमी सभ्यता अधुरा लगती है
, तब वह प्रधानता की किसी गुफा में घुस जाता है. और जब वह अपने सभ्यता के बारे में शर्मिंदा होता है तो पश्चिम का उपनिवेश बन कर रहना स्वीकार कर लेता है. दोनों सभ्यताओं से संघर्ष करने की प्रवृति भारतीय बुद्धिजीवी जगत में अभी तक नहीं विकसित हुई है या जो हुई थी वह ख़तम हो गई है. गाँधी के अनुनायी गुफाओं में चले गए. रवि ठाकुर के लोग अंग्रेजी और अंग्रेजियत के भक्त हो गए. गाँधी के एक शिष्य राम मनोहर लोहिया ने इतिहास चक्रनामक किताब लिखी. एक नई सभ्यता का  धारा चलने के लिए आवश्यक अवधारणायें प्रस्तुत करना इस किताब का लक्ष्य था. अंग्रेजी में लिखित होने के बावजूद बुद्धिजीवियों ने उसे नहीं पढ़ा. औपनिवेशिक दिमाग नवनिर्माण की तकलीफ बर्दास्त नहीं कर सकता. ज्यादा- से- ज्यादा वह प्रचलित और पुरानी धाराओं को साथ- साथ चलने की कोशिश करता है और दोनों के लिए कम से-कम प्रतिरोध की रणनीति अपनाता है. भारतीय बुद्धीजीवी की असहायता और उसका क्लीवत्व यहीं से उत्पन होता है. आम जनता पर दोनों प्रतिकूल सभ्यताओं का बोझ पड़ता है और वह अपनी तकलीफ के अहसास से आंदोलित होती है. सभ्यताओं से संघर्ष की इक्षाशक्ति के आभाव में देश के सारे राजनैतिक दल अप्रासंगिक और गतिहीन हो गए हैं. जनता के आन्दोलन को दिशा देने की क्षमता उनमे नहीं रह गई है. जन आन्दोलन का केवल हुँकार होता है, आन्दोलन का मार्ग नहीं बन पाता. जहाँ क्षितिज की कल्पना नहीं है, वहाँ मार्ग कैसे बने? इस कल्पना के आभाव में क्रांति अवरुद्ध हो जाती है.
ऐसी स्थिति में यहीं कहना काफी होगा कि सभ्यता के स्तर पर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. मुकाबले की रणनीति भी बनानी पड़ेगी. किन बिन्दुओं पर हम सभ्यताया सभ्यताओं से टकरायेंगे ? आधुनिक सभ्यता ने हमें कहाँ गुलाम बनाया है ? प्राचीन सभ्यता ने हमें कहाँ दबोच रखा है और पंगु बना रखा है? आज हम किन बिन्दुओं पर किस प्रकार का विद्रोह कर सकते हैं ? इन ठोस सवालो से नहीं जूझेगा, वह गाँधी की प्रशंसा करेगा तो नेहरु का भी समर्थन करेगा. यह एक बौधिक बाजीगरी होगी. संघर्ष नहीं होगा, सृजन नहीं होगा. सभ्यताओं से जो टकराएगा, उसे कुछ झेलना पड़ेगा. अपने वर्ग और तबकों में उसे अप्रिय और कटु होना पड़ेगा. 

आधुनिक सभ्यता की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह दुनिया  को अपने मानदंडो के अनुसार आधुनिक नही बना सकती. बारी
बारी से वह कुछ इलाकों को प्रलोभित करती है कि तुमको आधुनिक बना सकती हूँ अमरीकी ढंग से नहीं, तो रुसी ढंग से.पूरी दुनिया को एक समय के अन्दर आधुनिक बना सकने का दावा अभी तक कर नहीं सकी है. अतः यह सभ्यता दुनिया के बड़े हिस्से को उपनिवेश बना कर हीं रख सकती है, जिसके लिए आधुनिक सभ्यता का अर्थ उपभोग का कुछ सामान मात्र है. 
प्राचीन सभ्यता का सबसे बड़ा अपराध यह है कि राष्ट्रीयता और सामाजिक समता के मूल्य उसमे नहीं हैं. जो भारतीय सभ्यता अब बची हुई है
, उसकी सारी प्रवृति इन मूल्यों के विरुद्ध है. मनुष्य, मनुष्य की बराबरी या आपसी प्रेम पारंपरिक भारतीय संसकृति के विरूद्ध है. ऐसे मनुष्य की संवेदनहीनता, यन्त्र की संवेदान्हीनाता से कम खतरनाक नहीं है. मानव के प्रति  उदासीनता प्राचीन हन्दू संस्कृति का गुण था या नहीं, या यह वर्तमान की एक  विकृति है, यह स्पष्ट नहीं है. प्राचीन भारतीय मान्यता न सिर्फ सामाजिक समता के विरूद्ध है , बल्कि वह आध्यात्मिक समता की अवधारणा को भी नकारती है. उसके अनुसार कुछ लोगों की आत्मा हीं घटिया दरजे की होती है. बुद्ध ने इस मानव विरोधी प्रवृति को बदलने की कोशिश की थी. लेकिन आधुनिक हिन्दू मनुष्य की विरासत बुद्ध की धारा नहीं है. पश्चिमी सभ्यता का सबसे बड़ा गुण यह है कि उसने मानव की गरिमा और सामाजिक समानता को मूल्यों के तौर पर विकसित किया है. राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता की भावना भी इन मूल्यों पर आधारित है. हिन्दू मनुष्य जब तक इन मूल्यों को आत्मसात नहीं कर लेता है, तब तक वह पश्चिम से बेहतर एक सभ्यता का दावा नहीं कर सकता.
आधुनिक सभ्यता ने हमें उपनिवेश बनाया है. प्राचीन सभ्यता ने हमें समता विरोधी और मानव विरोधी बनाया है. इन बिन्दुओं पर अगर हम सभ्यता का संघर्ष नहीं चलाते हैं तो हमारी राजनीति, प्रशासन, अर्थव्यवस्था कुछ भी बदलने वाला नहीं है. इसके बिना हमारे साहित्य, कला, विज्ञान के क्षेत्र में में भी कोई उड़न नहीं हो सकेगी. आधुनिक सभ्यता से संघर्ष की शुरुआत औपनिवेशिक मानव के झकझोरने से होगी. उपभोगवाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सांस्कृतिक पर निर्भरता को निशाना बना कर हीं यह कार्यक्रम हो सकेगा. दूसरी ओर हिन्दू मानसिकता और हिन्दू समाज को सुधारने के लिए उग्र कार्यक्रम की जरुरत है.
 यह मानसिकता कितनी अपरिवर्तित है, इसका प्रमाण हरिजनों की प्रतिक्रिया से मिलता है. हाल की  घटनाएँ बतलाती है कि हरिजनों के धर्म- परिवर्तन के लिए बड़ी संख्या में तैयार किया जा सकता है. हरिजनों के लिए मानव का दर्जा प्राप्त करने के दो हीं रस्ते दिखाते हैं- धर्म- परिवर्तन और आरक्षण. आरक्षण का मतलब है कि हिन्दू मन की उदारता. क्या इस वक्त हिदू मन उतनी उदारता के लिए पूरी तरह तैयार है? जिन दिनों दयानंद, विवेकानंद या गाँधी हिन्दू समाज के नेता थे. उनका प्रयास और प्रभाव हिन्दू मन को मानवीय बनाने को था. हिन्दू समाज को पिघलाना उनका काम था. जब हिन्दू समाज पिघलता है तब भारतीय राष्ट बनता है, हिन्दू समाज जहाँ जड़ होता है, वहां भारतीय राष्ट्र का सिकुड़ने का डर रहता है.
दो सभ्यताओं का एक साथ टकराना सत्ता की अल्पकालीन राजनीति में संभव नहीं है. मौजूदा राजनितिक दलों की क्षमता के अनुसार उनका एक मात्र जायजा लक्ष्य हो सकता है- लोकतंत्र के ढांचे की रक्षा करना. अगर ये दल इतना भी नहीं कर सकते तो निष्कर्ष यहीं निकलेगा कि सभ्यताओं से लाडे बिना लोकतंत्र की रक्षा भी संभव नहीं है. ऐसी स्थिति में आम जनता के विद्रोह हा राजनीतिकरण नहीं होगा. कभी- कभी विद्यार्थियों में, कभी किसानों में, कभी दलितों में, कभी उपेक्षित इलाकों में खंड विद्रोह होते हैं. इन तबको और इलाकों पर दोनों सभ्यताओं का बोझ पड़ता है.  मौजूदा राजनितिक दलों का जो वैचारिक ढाँचा है, उसमे इन समूहों की मुक्ति हो नहीं सकती. उनकी मुक्ति के लिए एक नया वैचारिक ढाँचा चाहिए. जनता के खंड विद्रोह और नए वैचारिक ढाँचे के सम्मिश्रण से एक नै राजनीति पैदा हो सकती है.
वैचारिक संघर्ष बुद्धिजीवी ही करेगा. बुद्धिजीवी का मतलब बुद्धिजीवी वर्ग नहीं है. भारत का बुद्धिजीवी वर्ग अभी मानसिक स्तर पर दोगला हीं रहेगा. लेकिन टोलियों में या व्यक्ति के तौर पर बुद्धिजीवी एक नई सभ्यता- निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हो सकता है. सरे बुद्धिजीवियों से यह उपेक्षा नहीं की जाती है की वे संगठन या हड़ताल चलाएं. लेकिन यह उपेक्षा जरुर रहेगी कि आचरण के स्तर पर वे अपने विचार- संघर्ष को झेलें ताकि विचारों का सामाजिक प्रभाव बने.      

                                                          -    जनवरी 1982   


साभार – "विकल्पहीन नहीं है दुनिया" किशन पटनायक राजकमल प्रकाशन 

मंगलवार, 18 मार्च 2014


मेरे बनवास की मियाद अब तो तय कर दो
जैसे राम और पांडव ने कभी काटी थी

न तो जुए में ही हारा हूँ मै पांडव की तरह 
न तो कैकयी ने बनवास मुकर्र की है 
फिर खता क्या है की एक उम्र से बेघर - बेघर 
यूँ ही आवारा फिर रहा हूँ मै 

मुझको बनना नहीं अब एक मुकम्मल आदम 
जिसकी खातिर मै घर से निकला था 
वो मेरी चाह जूनून के रास्ते से होते हुए
हवस की दहलीज लाँघ आई है

यहाँ से आगे अब आदम की कोई जात नहीं
सिर्फ आदमखोर की दुनिया दिखाई देती है

यहाँ से लौटने दो माँ मुझे बस मेरे लिए
यहाँ से लौटने दो माँ मुझे बस मेरे लिए
मेरे बनवास की मियाद अब तो तय कर दो।

रविवार, 1 सितंबर 2013

अब जी में आता है उसे माँ कह दूँ ।

अपने ख्वाबों के मलबों के उपर 
वो वहाँ रोज बैठी रहती है 

वो निढाल पड़े - पड़े अजनबियों को 
बेटा - बेटी बनाके कहती थी 
अब न फेंको भीख के रहमत मुझपर
मुझे निकालो बहार इस सड़े मलबे से
अब इसकी बू से मेरा दम घुटा सा जाता है

कई दिनों से वो चुप- चाप बैठी रहती है
ऐसा लगता है कि वो तोड़ चुकी है रिश्ते
अब तो बेटा भी नहीं कहती है

उसकी चुप्पी अब मेरे दिल को झकझोर देती है
मेरे आँखों को आंसुओ से बोर देती है
जी में आता है कि भींच लू बाँहों में उसे
चूम लू उसके लकीरों से भरे माथे को
जी में आता है उसे माँ कह दूँ
अब जी में आता है उसे माँ कह दूँ ।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

मीना जी की एक नज़म

जिंदगी यह है

सुबह से शाम तलक
दूसरे के लिए कुछ करना है
जिसमें ख़ुद अपना कोई नक़्श नहीं
रंग उस पैकरे -तस्वीर ही में भरना है
जिंदगी क्या है ,कभी कभी सोचने लगता है ये ज़हन
और फिर रूह पे छा जाते हैं
दर्द के साये ,उदासी का धुंवा ,दुख की घटा
दिल में रह -रह के ख्याल आता है
ज़िन्दगी ये है तो फिर मौत किसे कहते हैं ?
प्यार एक ख़्वाब इस ख़्वाब की ता'बीर पूछ
क्या मिली जुर्म-वफ़ा की हमें ता'बीर पूछ

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

अमृता प्रीतम की याद में.....

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी ...

मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए
सितारों की मुठियाँ भरकर
आसमान ने निछावर कर दीं

दिल के घाट पर मेला जुड़ा ,
ज्यूँ रातें रेशम की परियां
पाँत बाँध कर आई......

जब मैं तेरा गीत लिखने लगी
काग़ज़ के उपर उभर आयीं
केसर की लकीरें

सूरज ने आज मेहंदी घोली
हथेलियों पर रंग गयी,
हमारी दोनो की तकदीरें

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रात कुडी ने दावत दी,
सितारों के चावल फाटक पर
यह डेग किसने चढा दी

चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पीकर
आकाश की आँखे गहरा गईं

धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान आए हैं.

आगे क्या लिखा है
अब इन तकदीरों से
कौन पूछने जाए

उम्र के काग़ज़ पर
तेरे इश्क का अंगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकाएगा !
किस्मत ने एक नगमा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वही नगमा गाएगा

कल्प वृक्ष की छाव में बैठ कर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोनी भारी !!

हवा की आहे कौन सुने,
चलूँ .........
तकदीर बुलाने आई है !!!!!!!!

शनिवार, 27 दिसंबर 2008

मीना जी की एक ग़ज़ल

आगाज़ तो होता है अंजाम नही होता

जब मेरी कहानी में वो नाम नही होता

जब जुल्फ की कालिख में गम जाए कोई राही

बदनाम सही लेकिन गुमनाम नही होता

हं -हंस के जवां दिल के हम क्यूँ चुने टुकड़े

हर शख्स की किस्मत में ईनाम नही होता

बहते हुए आंसू ने आंखों से कहा थम कर

जो से पिघल जाये वो जाम नही होता

दिन डूबे है या डूबी है बारात लिए कश्ती

साहिल पे मगर कोई कोहराम नही होता